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हमारी संस्कृति में जीवन और मृत्यु के बारे में एक अनोखा दृष्टिकोण है। यहाँ मृत्यु को अंत नहीं, बल्कि एक नई यात्रा की शुरुआत माना जाता है।
एक बार गया ( विष्णुपद) में, फलगू नदी के किनारे, मेरी मुलाकात एक वृद्ध पंडित से हुई। उन्होंने मुझसे कहा,
“बेटा, शरीर मिट्टी का बना है; एक दिन यहीं रहेगा। असली यात्रा आत्मा की है, और पिंडदान उस यात्रा में दीपक जलाने के समान है।”
हमारे पूर्वजों ने हमें जीवन दिया और हमें संस्कार दिए, हमारी पीढ़ी का पालन-पोषण करने के लिए कड़ी मेहनत की। उनके प्रति हमारा कर्तव्य न केवल जीवित रहते हुए, बल्कि मृत्यु के बाद भी बना रहता है। पिंडदान उस कर्तव्य की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है। 
“पिंड” आटे, चावल, तिल और घी से बना एक गोल पिंड है। यह आत्मा के सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है। “दान” का अर्थ है समर्पण या अर्पण।
पिंडदान हमारे पूर्वजों के प्रति प्रेम, सम्मान और उनकी मुक्ति के लिए प्रार्थना करने का कार्य है। रामायण और पुराणों में यह भी कथा है कि पिंडदान स्त्री और पुरुष दोनों कर सकते हैं। अपने वनवास के दौरान, भगवान श्री राम और लक्ष्मण वन में गहन प्रवास पर थे, तभी पितृ पक्ष का शुभ समय आया। माता सीता ने सोचा,
“अपने पूर्वजों का ऋण चुकाने में कोई देरी नहीं होनी चाहिए। यदि राम यहाँ होते, तो वे स्वयं यह कर्तव्य निभाते। उनकी अर्धांगिनी होने के नाते, यह कर्तव्य मेरा भी है।”
माता सीता ने फल्गु नदी के तट पर कुश बिछाकर चावल, तिल और जल से पिंडदान किया। उन्होंने भगवान राम और अपने गोत्र का सम्मान किया, फिर राजा दशरथ के लिए पिंडदान किया। कहा जाता है कि उसी समय आकाशवाणी हुई,
“बेटी सीता, आज तुमने पुत्र होने का अपना कर्तव्य पूरा किया है। मैं तुम्हारी भक्ति और प्रेम से प्रसन्न हूँ।”

महाभारत में भीष्म पितामह ने मृत्युशैया पर लेटे हुए युधिष्ठिर से कहा था - "पुत्र! हमारे पूर्वजों का ऋण अनंत है। यह ऋण केवल उनका श्राद्ध और पिंडदान करके ही चुकाया जा सकता है।"

गरुड़ पुराण मे ये वरन्न् हैं की, गरुड़ ने भगवान विष्णु से पूछे — “मृत आत्माओं को मोक्ष कैसे मिलता है?”
भगवान विष्णु ने उत्तर दिया — “पुत्र/संतान द्वारा पवित्र स्थल पर श्रद्धा से किया गया पिंडदान ही उन्हें मुक्त करता है। जिससे पितरों को मोक्ष कि प्राप्ति होती हैं।”

धार्मिक ग्रंथों में पिंडदान का वर्णन इस प्रकार है -
  • गरुड़ पुराण- पिंडदान के बिना आत्मा पितृलोक में अधूरी रहती है।
  • वायु पुराण- पिंडदान से पितरों को "भोजन" मिलता है, जिससे वे परलोक गमन कर पाते हैं।
  • वेद- पंचमहायज्ञों में "पितृ यज्ञ" का उल्लेख किया गया है, जिसमें पिंडदान प्रमुख है।
पिंडदान केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह आत्मा और पूर्वजों के बीच एक संवाद है।
 
आध्यात्मिक दृष्टि से, पिंड आत्मा के सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है, जल जीवन और पवित्रता का प्रतीक है, और मंत्र मार्गदर्शन और ऊर्जा के प्रतीक हैं।
 
भावनात्मक दृष्टि से यह हमें याद दिलाता है कि हम अकेले नहीं हैं, बल्कि पीढ़ियों की एक श्रृंखला का हिस्सा हैं।


गया में एक वृद्ध व्यक्ति ने मुझसे कहा था- जब मैं पिंडदान करता हूँ, तो मुझे अपने पिता का हाथ अपने सिर पर महसूस होता है। इससे मुझे साहस मिलता है और मैं हर काम में सफल होते रहा हूँ।

पिंडदान करने का स्थान :-
1. गया (बिहार), विष्णुपद मंदिर, अक्षयवट
2.पुष्कर (राजस्थान), ब्रह्मा मंदिर
3. हरिद्वार (उत्तराखंड), हर की पौडी
4. प्रयागराज (उत्तर प्रदेश), त्रिवेणी संगम
5. नैमिषारण्य (उत्तर प्रदेश)
6. वाराणसी (काशी), मणिकर्णिका घाट
7. गंगासागर (पश्चिम बंगाल), गंगा और सागर का संगम

​​​पिंडदान की तिथि 2025 :-
  • 6th सितंबर 2025 से 21st सितंबर 2015